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ZARURI NEWS |
21वीं
सदी की तेज़ रफ़्तार
ज़िंदगी में शिक्षा को सफलता की
सीढ़ी माना जाता है। हर माता-पिता
का सपना होता है कि उनका
बच्चा डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस या फिर किसी
बड़ी कंपनी में उच्च पद पर पहुँचे।
इस सपने को पूरा करने
की चाहत में बच्चे बचपन से ही पढ़ाई
के बोझ तले दब जाते हैं।
स्कूल की लंबी पढ़ाई,
भारी-भरकम बैग, ट्यूशन, कोचिंग और ऑनलाइन क्लासेज़
ने बच्चों की दिनचर्या को
इतना व्यस्त बना दिया है कि खेल,
मस्ती और बचपन जैसे
शब्द उनके जीवन से धीरे-धीरे
गायब होते जा रहे हैं।
एक
समय था जब बच्चे
सुबह स्कूल जाते थे, दोपहर में खेलकूद और शाम को
थोड़ा-बहुत पढ़ाई कर लिया करते
थे। लेकिन आज हालात बदल
गए हैं। अब बच्चे सुबह
से रात तक किताबों और
कॉपी-किताब के बीच जकड़े
रहते हैं। माता-पिता को लगता है
कि जितना ज़्यादा बच्चा पढ़ेगा, उतना ही उसका भविष्य
सुरक्षित होगा। लेकिन इस सोच के
पीछे बच्चों की मानसिक और
शारीरिक सेहत धीरे-धीरे प्रभावित हो रही है।
पढ़ाई का बोझ और बदलता बचपन
कई
शोध बताते हैं कि भारत में
स्कूल जाने वाले बच्चों के बैग का
वज़न उनकी उम्र और शरीर के
हिसाब से कहीं ज़्यादा
होता है। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद
(NCERT) की रिपोर्ट के अनुसार, प्राथमिक
कक्षाओं के बच्चों के
बैग का वज़न औसतन
5 से 7 किलो तक होता है।
जबकि विशेषज्ञ कहते हैं कि बच्चों के
बैग का वज़न उनके
शरीर के 10% से अधिक नहीं
होना चाहिए।
केवल
बैग ही समस्या नहीं
है। स्कूल के बाद बच्चों
को घंटों तक होमवर्क करना
पड़ता है। कई माता-पिता
अपने बच्चों को ट्यूशन या
कोचिंग क्लासेज़ में भेजते हैं, जिससे बच्चों का पूरा दिन
पढ़ाई में ही बीत जाता
है। खेलकूद, रचनात्मक गतिविधियाँ और दोस्तों के
साथ समय बिताना लगभग असंभव हो जाता है।
मानसिक और शारीरिक प्रभाव
शारीरिक समस्याएँ
1. रीढ़
की हड्डी पर असर – भारी
बैग उठाने से बच्चों की
रीढ़ की हड्डी पर
दबाव पड़ता है। लंबे समय में यह समस्या स्कोलियोसिस
या झुककर चलने की आदत तक
बन सकती है।
2. कंधे
और गर्दन में दर्द – बैग का वजन कंधों
पर पड़ने से दर्द और
मांसपेशियों में खिंचाव होता है।
3. थकान
और ऊर्जा की कमी – लगातार
पढ़ाई और आराम की
कमी से बच्चे थका
हुआ महसूस करते हैं।
4. आंखों
पर असर – देर रात तक पढ़ाई और
स्क्रीन टाइम से बच्चों की
आंखों की रोशनी कमज़ोर
होती जा रही है।
मानसिक समस्याएँ
1. तनाव
और चिंता – ज़्यादा पढ़ाई और अच्छे अंक
लाने के दबाव से
बच्चे तनावग्रस्त रहते हैं।
2. नींद
की कमी – होमवर्क और परीक्षा की
तैयारी के कारण बच्चे
समय पर सो नहीं
पाते।
3. डिप्रेशन
का खतरा – कई रिसर्च में
पाया गया है कि पढ़ाई
का दबाव बच्चों में अवसाद (Depression) और आत्महत्या की
प्रवृत्ति तक बढ़ा सकता
है।
4. रचनात्मकता
का ह्रास – बोझिल पढ़ाई से बच्चों में
नए विचारों की कमी होने
लगती है।
डिजिटल शिक्षा की नई चुनौतियाँ
कोविड-19
महामारी के बाद डिजिटल
शिक्षा ने बच्चों की
पढ़ाई का तरीका बदल
दिया। ऑनलाइन क्लासेज़ और मोबाइल-लैपटॉप
पर पढ़ाई ने बैग का
बोझ तो कुछ हद
तक कम किया, लेकिन
इसके साथ नई समस्याएँ पैदा
हो गईं।
स्क्रीन
टाइम का खतरा – घंटों
तक ऑनलाइन क्लास से आंखों पर
असर पड़ता है।
सामाजिक
दूरी – ऑनलाइन पढ़ाई के कारण बच्चे
दोस्तों और शिक्षकों से
जुड़ाव महसूस नहीं कर पाते।
मानसिक
थकान – डिजिटल थकान (Digital Fatigue) आज बच्चों में
आम समस्या बन गई है।
इंटरनेट
पर निर्भरता – बच्चे अब उत्तर खोजने
के लिए इंटरनेट पर निर्भर होने
लगे हैं, जिससे उनकी सोचने और समस्याएँ सुलझाने
की क्षमता कम हो रही
है।
माता-पिता और शिक्षकों की भूमिका
माता-पिता अक्सर यह सोचते हैं
कि अगर बच्चा लगातार पढ़ाई करेगा तो वह आगे
बढ़ेगा। इसी कारण कई बार वे
बच्चों पर अतिरिक्त पढ़ाई
और अंक लाने का दबाव डालते
हैं। वहीं, स्कूल और शिक्षक भी
बेहतर परिणाम के लिए बच्चों
से ज्यादा अपेक्षा रखने लगते हैं।
लेकिन
विशेषज्ञ मानते हैं कि माता-पिता
और शिक्षकों को बच्चों की
पढ़ाई के साथ-साथ
उनकी भावनात्मक ज़रूरतों को भी समझना
चाहिए। बच्चे केवल पढ़ाई के लिए नहीं
बने हैं, बल्कि उनमें खेल, कला, संगीत और रचनात्मकता जैसी
क्षमताएँ भी होती हैं।
सरकारी पहल और नीतियाँ
भारत
सरकार और कई राज्य
सरकारों ने बच्चों के
बोझ को कम करने
के लिए समय-समय पर पहल की
है।
स्कूल
बैग पॉलिसी 2020 – इसमें कहा गया है कि कक्षा
1 और 2 के बच्चों का
बैग उनके शरीर के वजन का
10% से ज़्यादा नहीं होना चाहिए।
नो
बैग डे – कुछ राज्यों में सप्ताह में एक दिन ऐसा
रखा गया है जब बच्चों
को स्कूल में बैग लाने की ज़रूरत नहीं
होती।
नई
शिक्षा नीति (NEP 2020) – इस नीति में
कहा गया है कि बच्चों
पर रटने का दबाव कम
किया जाएगा और उन्हें कौशल
आधारित शिक्षा दी जाएगी।
खेल
और रचनात्मक गतिविधियों पर जोर – सरकार
ने खेलो इंडिया जैसी योजनाएँ शुरू की हैं ताकि
बच्चे पढ़ाई के साथ खेलों
में भी आगे बढ़
सकें।
अंतर्राष्ट्रीय उदाहरण
फिनलैंड,
जापान और कनाडा जैसे
देशों में शिक्षा प्रणाली बच्चों के बोझ को
कम करने पर केंद्रित है।
फिनलैंड
– यहाँ बच्चों को बहुत कम
होमवर्क दिया जाता है। कक्षाएँ छोटी होती हैं और अधिक समय
खेलकूद व रचनात्मक गतिविधियों
में लगाया जाता है।
जापान
– वहाँ बच्चे स्कूल के बाद ज़्यादातर
समय खेल और सामाजिक गतिविधियों
में बिताते हैं।
कनाडा
– शिक्षा प्रणाली बच्चों को प्रोजेक्ट और
गतिविधियों के माध्यम से
सिखाने पर आधारित है,
न कि केवल किताबों
पर।
भारत
अगर इन देशों की
शिक्षा पद्धतियों से सीख ले
तो बच्चों का बोझ काफी
हद तक कम हो
सकता है।
समाधान और सुझाव
1. संतुलित
पाठ्यक्रम – किताबों और विषयों की
संख्या कम की जाए।
2. डिजिटल
और प्रैक्टिकल लर्निंग – केवल रटने के बजाय प्रयोग
और गतिविधियों पर आधारित पढ़ाई।
3. खेल
और कला को बढ़ावा – स्कूलों
में खेल और कला अनिवार्य
किए जाएं।
4. माता-पिता का सहयोग – बच्चों
को अंक के बजाय प्रयास
और मेहनत के लिए सराहा
जाए।
5. शिक्षकों
की संवेदनशीलता – बच्चों को दंड देने
की बजाय उन्हें समझाने और मार्गदर्शन पर
जोर दिया जाए।
6. सरकारी
निगरानी – शिक्षा नीतियों का पालन स्कूलों
में सख़्ती से कराया जाए।
निष्कर्ष
शिक्षा
बच्चों का अधिकार है,
लेकिन शिक्षा का मतलब सिर्फ
किताबों का बोझ नहीं
होना चाहिए। एक स्वस्थ, आत्मविश्वासी
और खुशहाल बच्चा ही आगे चलकर
समाज का सफल नागरिक
बन सकता है। अगर आज हम बच्चों
को पढ़ाई के बोझ तले
दबाते रहे तो आने वाले
समय में यह समाज के
लिए एक बड़ी समस्या
बन सकती है।
इसलिए
ज़रूरी है कि हम
बच्चों को संतुलित शिक्षा
दें, जिसमें पढ़ाई के साथ खेल,
कला, संगीत और रचनात्मक गतिविधियों
के लिए भी पर्याप्त समय
हो। माता-पिता, शिक्षक और सरकार — तीनों
की संयुक्त जिम्मेदारी है कि वे
बच्चों के भविष्य को
केवल पढ़ाई से नहीं, बल्कि
जीवन के हर पहलू
से समृद्ध बनाएं।
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